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विस्तार : सीक्रेट ऑफ डार्कनेस (भाग : 10)




मणिभद्र ग्राम एक ऐसे क्षेत्र में बसा हुआ है जहाँ नित पल-प्रतिपल प्रकृति का रूप बदलता रहता है। कभी प्रकृति संवर कर स्वर्ग के दिव्य आनन्द से अभिभूत करती है तो कभी प्रलय कर नरक समान भय एवं पीड़ा से।

गाँव मे अंधेरा बढ़ता ही जा रहा था, सभी लोग अपने घरों में दुबके हुए थे परन्तु जैसा कि आशा थी हिमपात के पश्चात यह अंधेरा टल जाएगा वैसा कुछ नही हुआ। न ही हिम की बड़ी बूंदे गिरी और न ही अंधेरा कम होने का नाम ले रहा था, बल्कि समय के साथ यह और भी गहराता ही जा रहा था। अब तक दोपहर होने को थी परन्तु अंधेरा कम होने के बजाए इतना बढ़ चुका था कि आँखों के सामने कुछ भी नजर आना बंद हो गया।

"बाबा कही ये चीनियों की तो कोई चाल नही!" आशु चिंतित स्वर में बोली, उसे ज्ञात था कि उसका यह स्वर्ग चीन की हवशी निगाहों में अटका हुआ था।

"नही बेटा! यह गैस कृत्रिम प्रतीत नही होती।" बाबा आशु की ओर देखकर जवाब दिए।

"आपका कहना सही है बाबा! यह गैस कृत्रिम नही है परंतु यह प्राकृतिक भी नही है।" अपने दोनों हाथो में परखनली लिए आँचल उस कमरे में आई, एक परखनली में गहरे काले रंग का द्रव्य दिखाई दे रहा था वहीं दूसरे में रक्त के समान लाल।

"तो वैज्ञानिक साहिबा अब तक ये कर रही थी।" रवि ने तंज कसा। जिसे सुनकर आँचल मुँह फेरकर बाबा की ओर बढ़ी।

"यह क्या है बेटा!" बाबा ने पूछा। वे जानते थे कि उनकी बिटिया का परीक्षण कभी भी गलत नही होता, गांव के इकलौते इंटर कॉलेज में विज्ञान में हर साल की टॉपर रही है।

"मैंने बाहर के धूम्र से थोड़ा सा सैम्पल लिया उसके बाद उसमें नाइट्रिक एसिड मिलाया, रंग परीक्षण के अनुसार इसमें कोई परिवर्तन नही होना चाहिए था परन्तु यह और अधिक काला हो गया।" आँचल अपने बाएं हाथ में पकड़ी परखनली को आगे करते हुए बोली जिसे आशु पकड़ने आती है परन्तु वह, उसे इशारे से वही खड़े रहने बोली।

"और जैसे ही इसमें नॉर्मल PH के पानी को मिलाया यह अभिक्रिया करके लाल हो गया, यह प्राकृतिक नही हो सकता क्योंकि पानी किसी से भी इस प्रकार की अभिक्रिया नही करता।" आँचल सबको समझाने लगी, अब सबके मन में डर के भाव भरने लगे थे। माँ सबके लिए भोजन तैयार करने की व्यवस्था करने लगी परन्तु सूखी लकड़ियों में भी आग नही जल रहा था। बाहर से जोर जोर से रोने चीखने-चिल्लाने की आवाज आ रही थी, गांव में चारो तरफ हाहाकार मच चुका था, सभी अपने अपने सामान की पैकिंग कर दूसरे गांव में प्रस्थान करने के लिए तैयार भी होने लगे थे।

"तुम सब यही रहना मैं देखकर आता हूँ क्या हुआ।" हाथ में बड़ी से टॉर्च लिए बाबा नीचे उतरते हुए बोले। टॉर्च की रौशनी एक मीटर के घेरे से आगे तक नही जा रही थी, घास सूखने लगे थे, पेड़ो की पत्तियां मुरझाकर गिर रही थी। बाबा लम्बे-लम्बे कदमो से पास के दूसरे घर की ओर बढ़ने लगे।

रास्ते मिट्टी के एक टूटे बर्तन में पानी रखा हुआ था, जिसका रंग रक्त के समान दिखाई दे रहा था। बाबा को आँचल का एक्सपेरिमेंट याद आया, मन में एक अनजाना सा डर भर गया, उनका रोम रोम सिहर गया। एक पल को ख्याल आया कि वापस अपने ही घर जाए पर अब तक वे पड़ोस के घर तक आ चुके थे।

अचानक एक पत्थर से ठोकर लगी, उनकी डर के मारे चीख निकल गयी परन्तु यह बस पत्थर का टुकड़ा ही था। अब वे और लंबे लंबे कदम से आगे बढ़े, इतनी भीषण ठंड में भी शरीर पसीने से भीग गया था, मात्र कुछ मीटर की दूरी तय करने में ही उनकी हालत खराब हो गयी थी। अंदर से वह डर बढ़ता ही जा रहा था परन्तु वे उस डर को अपने बाहरी हाव भाव तक नही आने देना चाहते थे।

अब वे अपने पड़ोसी के घर पहुंच चुके थे, नीचे मवेशी आकर दुबके हुए थे लकड़ी की सीढ़ी की सहायता से वे ऊपरी मंजिल पर पहुँचे जहां उस परिवार के सभी जन एक कोने में दुबके हुए थे। किसी ने भी इससे पहले इतना भयानक अंधेरा नही देखा था। सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आवाज सुनकर वे सतर्क होकर कोने में दुबके हुए थे।

"सतविंदर! ये मैं हूँ।" दरवाजे को खटखटाते हुए बोला।

"कौन गजेंद्र?" अंदर से प्रश्नवाचक स्वर उभरा।

"हाँ! अंशिका और अंजुम कैसे हैं?" गजेन्द्र ने दरवाजे पर खड़े खड़े ही पूछा।

"सब ठीक हैं।" सतविंदर बोला।

"हमें बहुत डर लग रहा है काका!" अंशिका बहुत डरी हुई थी।

"कुछ नही होगा बच्चों!" जब निश्चित हो गया कि सब ठीक हैं तो गजेंद्र नीचे उतर गए। थोड़ी दूर जाते ही उन्हें पहाड़ के बीच जोरदार अट्ठहास की आवाज सुनाई दी, डर के मारे धड़कने तेज होती जा रही थी। हिम भी अब धीरे-धीरे लाल होता जा रहा था। गजेंद्र तेज-तेज कदमों से अपने घर की ओर वापस लौट रहा था। ग्लेशियर के पिघलने से नदी की आवाज तेज हो गयी थी, आँधी का वेग भी बढ़ता जा रहा था जिसके कारण चलने में अधिक कठिनाई हो रही थी। पहाड़ियों से पेड़ो के टूटने की आवाजें आ रही थी। नदी की उफान, पेड़ो के टूटने की चरमराहट, आँधी की सरसराहट और रूह को कँपा देने वाली ठंडी सब मिलकर मन में भय भरती जा रही थी। मन अब बेचैन हो रहा था, गजेंद्र तेजी से सीढ़ियों पर चढ़ते हुए अपने घर पहुँचा। मजबूत नींव होने के बावजूद भी ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कुछ ही क्षणों में यह घर ढह जाएगा। अब तक सबने मिलकर सामान पैक कर लिया था। इस घर मे रहना खतरनाक था और बाहर जाना भी अधिक खतरनाक था, गजेंद्र ने नीचे जाकर मवेशियों को छोड़ दिया। सबके हृदय की धड़कनें बढ़ी हुई थी। रवि अपनी माँ से लिपटा हुआ था, आशु और आँचल हाथ थामे एक दूसरे को सांत्वना दे रही थीं।

"हे महादेव! अब क्या होगा?" आशु की माँ के मुख से अनायास ही प्रार्थना का स्वर उभरा। सब दोनों हाथ जोड़कर आँखे बन्दकर बद्रीनाथ से अपनी रक्षा की गुहार लगाने लगे।

पेड़ टूटकर उड़ते-लुढ़कते नदी की धार में समा जा रहे थे, चारो तरफ ऊँचा शोर था, आँधी कम होने के बजाए और बढ़ती ही गयी। रात हो चुकी थी, धीरे-धीरे हवा का दबाव कम हो रहा था। रात में चाँद आसमान पर नजर आया, यह देखकर सबको सुखद अनुभूति हुई। सभी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो प्राण जाते-जाते बच गए हो। गाँव पूरी तरह तहस-नहस हो गया था, हजारो वृक्ष टूट गए थे, घास मुरझाकर काली पड़ गयी थी। नदी का जल लाल से फिर पारदर्शी नीला होते जा रहा था। पहाड़ो का हिम भी अब अपने पूर्व रंग में आ चुका था, वातावरण अब पहले से कुछ ठीक-ठाक लग रहा था। यह सब किसी डरावने सपने की भांति हुआ था सब चुपचाप अपने अपने घरों में दुबक गए।

अगली सुबह..

गांव के मुखिया ने सभी गांववासियों एक जगह एकत्रित होने का संदेशा भिजवाया। सुबह के नौ बजे सभी गांव की सभा में एकत्रित हो गए थे, उनमें से कइयों को जान-माल की भीषण हानि हुई थी, मवेशियों और खेतों का भारी नुकसान हुआ था, यहां ऐसी स्थिति बनती रहती है इसलिए सबने थोड़ी व्यवस्थाएं की हुई थी परन्तु यह घटना बाकी सभी से अधिक खतरनाक थी। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था, उन्होंने पिछले दिन साक्षात मृत्यु के दर्शन किये थे। कई मवेशियों के आर पार लकड़ी के टुकड़े चले गए थे, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। गांव पूरी तरह तहस नहस हो चुका था। यह घटना बहुत हृदय विदारक थी।

मुखिया जी के आने के पश्चात सभी ने बद्रीनाथ की प्रार्थना की और उनकी और माणा की रक्षा हेतु महादेव को धन्यवाद किया। सभा एक विशेष कारण से बुलाई गई थी। सभी को आज शाम होने से पहले इस गांव से निकलने के लिए तैयार होना था। तब तक नदी का बहाव भी धीमा हो जाएगा। सभी जल्दी-जल्दी जाकर अपने सामान उठाने लगे ताकि दोपहर को सभी यही एकत्रित हो सके। अब आँसुओ के लिए वक़्त नही बचा था, जितना कुछ बचा था उसे यहां से लेकर चले जाने में ही समझदारी थी इसलिए सभी लोग तैयार हो गए।

◆◆◆◆◆

कहीं और….(रात्रि के समय)

"अचानक चाँद के आसमान में आते ही हमारी शक्तियां ठप्प कैसे हो गयी जबकि चांद तो हमारी शक्तियों को द्विगुणित कर देता है।" वह शख्स परेशान स्वर में बोला।

"यही मुझे भी समझ नही आ रहा अमन! यह कैसे हो गया?" दूसरा शख्स भी इसी बात से परेशान था। दोनों नदी के किनारे एक ऊँची चट्टान पर बैठे हुए थे। चाँद की हल्की रौशनी में दोनों का चेहरा पहचाना जा सकता था। यह अमन और वीर थे, और इनकी बातों से यह निश्चित था कि वह तबाही इन्ही के द्वारा लाई गई थी।

"मत भूलो यह बद्रीनाथ का क्षेत्र है! यहाँ हमारी शक्तियां बड़ी मुश्किल से ही कार्यान्वित होती हैं।" अमन नदी के बहते जल को घूरते हुए बोला।

"हमनें अपनी शक्ति का बड़ा अंश नष्ट कर दिया। वह भी इसलिए कि हम विस्तार को ढूंढ सके परंतु उसका कोई पता ही नही चल रहा है।" वीर बढ़ती हुई तबाही के अचानक रुक जाने से अचंभित था।

"अभी तुमने कहा था न कि चाँद हमारी शक्तियों को द्विगुणित कर देता है यानी काली शक्तियां द्विगुणित हो जाती है।" अमन इशारों में समझाते हुए बोला।

"और यह तबाही बढ़ने के स्थान पर रुक गयी! इसका मतलब…."

"हाँ सही समझे! इसका मतलब विस्तार भी यही पर आ चुका है।" अमन मुस्कुराकर बोला।

"परन्तु वह विशुद्ध स्याह ऊर्जा धारक है उससे बिना किसी तैयारी के टकराना मूर्खता होगी। वैसे भी हमारे द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में लाये इस तबाही से अंधेरे की महान शक्ति अवश्य ही जाग जाएगी।" वीर के चेहरे की चमक बढ़ती जा रही थी।

"अब हमें एक विस्तार तो क्या, उस के जैसे लाखों मिलकर भी नही रोक सकते।" अमन उसकी बात को पूरा करता है।

"परन्तु इस विस्तार को मरना ही होगा, यह पता नही कब अंधेरे के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त होकर
हमारे लिए ही खतरा बन जाये।" वीर के स्वर में चिंता स्पष्ट झलक रही थी।

"यह अवश्य ही मरेगा वीर! हम अब असफल नही होंगे। इस बार इसे अंधेरे के वश में करने का कोई विचार नही है। देवता से शक्ति अर्जित कर इसे समाप्त कर देते हैं।" अमन एक ओर उड़कर जाते हुए बोला।

"तो हमें हमारी सेना चाहिए।" वीर ने कहा।

"वह यही है, और अंधेरे के वश में ही है फिर भी उसका अपना विचार भी कार्य कर रहा है अर्थात वह शीघ्र ही नियंत्रण से मुक्त हो जाएगा।" अमन बोला।

"तो हम क्या करे?" वीर अमन की उल्टी सीधी बात नही समझ पा रहा था।

"मैं सोच रहा हूँ क्यों न उसपर देवता का इतना नियंत्रण हो जाये कि वह स्वयं ही अपने प्राण त्याग दे।" अमन होंठो पर कुटिल मुस्कान लिए बोला।

"ऐसा नही हो सकता अमन! कोई और शक्ति है जो उसकी सहायता कर रही है। हमें बहस के स्थान पर अपनी सेना इकट्ठी करनी होगी ताकि ये सभी कल के चाँद को न देख सकें। अब यह स्वर्ग नरक से भी बदतर होगा।" वीर अमन को समझाते हुए कहा।

"और हम हमारे देवता के लिए उनके इष्ट को तबाह कर यहां स्थान बनाएंगे।" अमन के चेहरे पर जमाने भर की कुटिलता थी। उसका स्याह चेहरा चाँद की मद्धिम रोशनी में शैतान सा प्रतीत हो रहा था।

वही से थोड़ी दूर एक स्याह जीव स्वयं को मजबूत बेड़ियों में बांधे हुए था, बेड़िया चाँद के प्रकाश के कारण चमक रही थी। चारो तरफ भेड़ियों का शोर गूंज रहा था जो इस रात को भयानक बना रहे थे।


क्रमशः…..


 


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2 Comments

Kaushalya Rani

25-Nov-2021 10:10 PM

Very nice,sooo good

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Satendra Nath Choubey

11-Jul-2021 07:50 AM

बहुत अच्छे।

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